‘एकम् सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’
-डी. एस. एम. सत्यार्थी
यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है कि हिन्दूधर्म के अनुयायियों के मध्य जहाँ प्रतिमा / मूर्ति पूजा व्ववहारिक रूप से पाई जाती हैं, वहीं उसी समय घोर एकेेश्वरवाद भी साथ ही साथ पाया जाता है । अधिकांश लोग सोचते हैं कि ये हिन्दू कैसे मूर्ख हैं । प्रत्येक धर्ममत की अपनी एक विशिष्टता होनी चाहिये । यदि मूर्तिपूजा सत्य है, तो वेदमंत्र ‘‘न तस्य प्रतिमा अस्ति’’ उस ईशान परब्रह्म परमेश्वर ( ईश्वर ) की कोई प्रतिमा नहीं हैं" गलत है। और यदि वेदमंत्र ‘‘न तस्य प्रतिमा अस्ति’’ सत्य है हिन्दुओं के मध्य प्रतिमा पूजा बिल्कुल गलत है।
दोनों एक साथ सत्य नहीं हो सकते, और न ही हैं। यह गलती सिध्दान्त और व्यवहार को अलग अलग भालिभाँंति ना समझने के कारण है।
प्रतिमा पूजा हिन्दुओं के मध्य एक अभ्यास/ व्यवहार है, न कि सिध्दान्त ।
‘‘न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः’’ -‘‘ उसकी कोई प्रतिमा (मूर्ति) नहीं है जिसका नाम महान यश वाला है।’’ एक सिध्दान्त है।
प्रत्येक विज्ञान और दर्शन के दो घटक होते हैं :--
१. सिध्दान्त २ व्यवहार / अभ्यास
विज्ञान और दर्शन उनकी दृष्टि में क्या सही है, यह हमें बता सकते हैं किन्तु वे होने वाले अभ्यास / व्यवहार को नियंत्रित नहीं कर सकते।
वेद मूर्तिपूजा का संस्थापन नहीं करते, वे अपने अनुयायियों के मध्य किसी और चीज के अभ्यास / व्यवहार को नहीं रोक सकते । जिसकी पुष्टि वेद न करते हों। वेद अपने अनुयायियों दृढतापूर्वक / बलपूर्वक अपने सिध्दान्त को नहीं थोपते / मनवाते, जैसे कि अन्य धर्ममत करते हैं।
वेद कहता है:-
‘इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: सुपर्णोगुरूत्मान् ।
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:।
- वेद /ऋग्वेद 1/164/46
‘‘ इन्द्र, मित्र, वरुण , अग्नि कहा जाता हैं ।निश्चय ही दिव्य हैं
वह सुन्दर पालन करने वाला महान् । एक को ही उत्तम विद्वान
बहुत प्रकार से कहते हैं। ः- अग्नि, यम्, मातरिश्वा कहा जाता हैं।’’
वेद अपने अनुयायियों को ईशान के ( ईश्वर ) नामों को लेकर लडना नहीं सिखाता वह उपास्य के गुणों पर ध्यान केन्द्रित करता है। ना कि उनके नामों पर ।
यही कारण था कि महात्मा गाँधी कह सके :--
‘‘ ईश्वर अल्ला तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान् ।
’’इस प्रकार हिन्दू धर्म धार्मिक लोकतंत्र कि शिक्षा देता है ।